Development In Mountains: How much coordination is there between development and environmental protection in the mountains?

Development In Mountains: पहाड़ों में विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच कितना सामंजस्य?

Development In Mountains: “हिमालय” भारत के लिए मात्र एक भौगोलिक संरचना ही नहीं है, बल्कि देश के लिए देश की “जीवन रेखा” है. ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि चाहे नदियों का जल हो या मॉनसून की गति सबकुछ हिमालय के पहाड़ ही तय करते हैं.

मैदानी या पठार क्षेत्र के लिए जो विकास माना जाता है, पहाड़ी क्षेत्रों में यही विकास आफत को आमंत्रित करने की वजह बन जाता है.

यदि भारत के ही एक पहाड़ी राज्य “उत्तराखंड” की बात करें तो यहां आए दिन सड़कों का चौड़ीकरण, ऑल वेदर रोड का काम, नए बांधों को बनाने का काम, रेल लाइन का निर्माण, भव्य भवनों का निर्माण आदि के काम चलते ही चले जा रहे हैं और विनाश के दरवाजे खोलते चले जा रहे हैं.

उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र में यह प्रश्न हमेशा उठता है कि विकास एवं पर्यावरण संरक्षण में सामंजस्य कैसे बनाया जा सकता है. यदि ध्यान दिया जाए तो विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ किया जा सकता है लेकिन उत्तराखंड जैसे हिमालयन राज्य में चल रहे निर्माण कार्यों जैसे बड़े बांधों का निर्माण, कई सुरंगों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, ऑल वेदर रोड, रेल लाइन निर्माण आदि कार्यों की वजह से विकास के नाम पर विनाश के दरवाजे खोले जा रहे हैं.

आज उत्तराखंड के अधिकांश गांव सड़कों से जुड़ गए हैं. मैं अपनी बात करूं तो मैं उत्तराखंड के मसूरी शहर से 1 घंटे की दूरी एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखती हूं. इस वजह से समय-समय पर दिल्ली से अपने गांव आना-जाना लगा रहता है.

सड़क बनाने के लिये जगह-जगह पर पहाड़ काटे जा रहे हैं. पहाड़ काटने के लिये जमकर ब्लास्ट किए जा रहे हैं. जैसा कि हम जानते हैं कि उत्तराखण्ड हिमालयन क्षेत्र में आता है और हिमालय की पहाड़ियाँ अभी शैशवावस्था में हैं. इस वजह से जेसीबी मशीन और ब्लास्ट से खोखले हुए पहाड़ बादल फटने या बारिश होने पर भरभरा कर गिरने लगती हैं और नीचे के गाँवों को मलबे से भर देती है.
“पहाड़ों की रानी” कहलाने वाली मसूरी में विकास के नाम पर जो योजनाएं बन रही है, वह कई मायनों में न केवल विचित्र है बल्कि पहाड़ के लिए आफतों को न्योता देने के समान है.

यह बात सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि मसूरी व मसूरी के आसपास का इलाका भूस्खलन के मामले में बहुत संवेदनशील है. मसूरी से कुछ ही दूरी पर 5-6 साल पहले एक नई सड़क बनाई गई थी, लेकिन अब तक उस सड़क से जुड़ी हुई चट्टाने गिरती रहती है. जिन सड़कों में दोनों तरफ से गाड़ियों की आसानी से आवाजाही हो रही हैं उन सड़कों का भी चौड़ीकरण किया जा रहा है. मैं अपनी आंखों देखी बताऊं तो मसूरी से जो सड़क मेरे गांव को जोड़ती है उस सड़क पर वर्तमान समय में चौड़ीकरण का काम चल रहा है. हालांकि, पहले भी दोनों तरफ वाहनों की आवाजाही आसानी से होती रही है लेकिन देवदार और ओक जैसे पेड़ काटे जा रहे हैं व पहाड़ो को ब्लास्ट किया जा रहा है. क्या पर्वतीय क्षेत्रों को इस तरह खोदना प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं है?

कहा जाता है कि उत्तराखंड में पहाड़ कच्चे हैं, यह अरावली की पहाड़ियों की तरह प्राचीन पहाड़ नहीं है. बांध बनाने के लिए सुरंगों का निर्माण किया जाता है तो पहाड़ के सीने में छेद किया जाता है. इस वजह से पहाड़ कमजोर हो जाते हैं भूकंप के लिहाज से यह इलाका खतरे के जोन में आता है. 90 के दशक में भी यहां भयंकर भूकंप आया था. उस समय काफी डर का माहौल था और यह भी कहा जा रहा था कि कभी तगड़ा भूकंप आया और टिहरी बांध टूट गया तो पानी का सैलाब हरिद्वार के साथ-साथ दिल्ली को भी ले डूबेगा. कुल मिलाकर बात यह है कि पहाड़ों से ज्यादा छेड़खानी भारी मुसीबत ला सकती है. चार धाम की यात्रा को सुगम बनाने के लिए सड़कों का चौड़ीकरण हो रहा है जिसकी वजह से चट्टानों को ब्लास्ट किया जा रहा है. इससे भी पहाड़ अंदर से हिल रहे हैं. ये पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि हल्की सी बारिश भी सह नहीं पाते,हल्की सी बारिश होने पर ही भूस्खलन होना आम बात सी हो गई है. पहाड़ों में सड़कें संकरी होने की वजह से जाम हो या ना हो. लेकिन भूस्खलन की वजह से रास्ता जाम होना आम बात सी हो गई है.

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अक्सर ऐसा कहा जाता है कि बांध बनेगा तो बिजली बनेगी, बिजली बनेगी तो बिजली मिलेगी, बिजली मिलेगी तो आटा चक्की चलेगी, इंटरनेट कैफे काम करेंगे, आदि. लेकिन कुल मिलाकर सीधी से गणित यह है कि इसके अपने नुकसान भी हैं. ग्लोबल वार्मिंग के कारण पहाड़ तप रहे हैं, ग्लेशियर प्रदूषित हो रहे हैं,मौसम बदलने के कारण बर्फ गिरनी कम हो गई है, यह बर्फ ग्लेशियर को जोड़ने का काम करती हैं. पिछले साल फरवरी के महीने में हमने देखा कि एक ग्लेशियर प्रदूषण की मार चमोली में झेल नहीं सका और वह बह गया. अपने साथ बांध के बांध, गांव के गांव, मकान के मकान बहा गया। 2013 की केदारनाथ त्रासदी को तो कभी भुलाया जा ही नहीं सकता इसमें हजारों लोग मारे गए थे. वहीं, वर्तमान समय में उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले का जोशीमठ शहर हर जगह चर्चा में बना हुआ है. दरअसल, इसके पीछे की वजह यह है कि जोशीमठ में कुछ दिनों से जमीन धंसने के संकेत दिखाई दे रहें हैं. उत्तराखंड का जोशीमठ शहर “गेटवे ऑफ हिमालय” के नाम से मशहूर है, जहां धरती चीरते हुए जगह-जगह से है पानी निकलना शुरू हुआ, सड़कों के साथ-साथ लोगों के घरों में दरारें आईं, जिसकी वजह से लोगों ने अपने घरों को छोड़ दिया है. 

कुछ समय पहले सोशल मीडिया के द्वारा “लोहारी गांव” का चर्चा का विषय बना था. बता दें कि उत्तराखंड के लखवाड़-ब्यासी बांध परियोजना के तहत 6 गाँव जलमग्न हुए, जिनमे एक गांव लोहारी भी शामिल था, गांव को सरकारी मशीनरी ने 48 घण्टे में खाली करने का अल्टीमेटम क्या दिया था, मानो ग्रामीणों के कलेजे चिरने लगे,लेकिन हुकूमत के आगे सब भावनाएं, अनुभूति धराशाई हो गई थी. जिस घर को बनाने में,बसाने में कितनी पीढ़ी ने मेहनत की होगी आज वो मेहनत पल भर में खत्म हो गयी. एक सुंदर गाँव देखते ही देखते उजड़ गया.

नीति आयोग की शहरी प्रबन्धन की रिपोर्ट पूर्वोत्तर के राज्यों समेत उत्तराखण्ड और अन्य पर्वतीय राज्यों के सम्बन्ध में टिप्पणी करती है कि इन राज्यों में स्थित शहरों की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थितियाँ पठारी क्षेत्रों से पूरी तरह भिन्न हैं। इन क्षेत्रों में बिखरी हुई आबादी है और कदम-कदम पर मुश्किलें हैं. देश के अन्य क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों में किसी भी परियोजना को पूरा करना कठिन होगा. सरकार ऐसे राज्यों को अवसर मुहैया कराने के लिये अलग लक्ष्य तय करे.

नीति आयोग को अलग लक्ष्य तय करने की जगह अपने विकास की परिभाषा पर एक बार अवश्य विचार करना चाहिए. स्मार्ट सिटी यदि पहाड़ वाले राज्यों में बनाने हैं तो उसके लिये मानक अलग हो सकते हैं. यह जरूरी तो नहीं कि पठारी शहरों में स्मार्ट सिटी की जो जरूरत हो, वह पहाड़ी शहरों के भी काम आये.

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